जिम्मेदार कौन
अभी हाल ही में कुछ दिनों पहले मैं रायपुर से भोपाल के बीच
ट्रेन से स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था। शाम का समय था ट्रेन में चाय, कॉफी, नाश्ता और भी कई तरह के सामान बेचने वालों के साथ कुछ पैसा मांगने वाले
लोग भी आ-जा रहे थे। उनकी आवाज सुनकर लोगों के चेहरों पर जो शिकन उभर आती थी, उससे स्पष्ट था की ये फैरिवाले उनके आराम में व्यवधान पैदा कर रहे थे।
फिर भी बेचारे फैरिवाले इस उम्मीद मे आवाज लगाने को मजबूर थे की शायद कोई उनका
समान खरीद ले और उनके परिवार का खाने का इंतजाम हो जाए। विडम्बना देखिये कि खाना
बेचने वाले खुद खाने को तरसते हैं, लोगों का पेट भरने वाले
खुद भूखे पेट रहते हैं। इन्ही फैरिवालों में कुछ बच्चे भी होते हैं, जिनका बचपन रोटी तलासता इधर-उधर भटकता छोटा-मोटा सामान बेचता कहीं भी नजर
आ जाता है। उनके हाथों में होता है जूता साफ करने का ब्रश,
पानी कि बॉटल और हमारे द्वारा फैलाये गए कचरे को साफ करने के लिए झाड़ू या फिर आपके
सामने फैले छोटे छोटे दो मासूम हाथ और आशा भरी नजरें।
अकसर लोग इनके हुलिये को देखकर इन्हे दुत्कार देते हैं। कुछ
लोग तरस खाकर या पीछा छुड़ाने के लिए बड़े गर्व के साथ रुपए-दो रुपए इनके हाथों में
रख देते हैं, तो कुछ खाने के बाद बचा हुआ खाना देकर अपने आजू-बाजू देखने
लगते हैं कि ये महान काम करते हुए उन्हे कितने लोगों ने देखा।
इसी तरह कि हलचल और कवायदों के बीच गंदी और फटी फ्रॉक पहने
एक मेली सी लड़की ने डिब्बे में प्रवेश किया, उसकी उम्र बमुश्किल 10-12 साल रही होगी।
उसके हाथों में एक बांस कि टोकरी थी जिसमें रंग-बिरंगे मोतियों से बने ब्रेसलेट
रखे हुए थे। पूरी टोकरी ब्रेसलेट से भरी हुई थी।
तभी मेरे पड़ोस वाली सीट पर बैठी एक महिला ने लड़की को बुलाया
और ब्रेसलेट दिखाने को कहा। लड़की ने पूरी टोकरी महिला के हाथ में थमा दी और खुद
उछलती-कुददती अगले डिब्बे कि तरफ चली गई। लगभग 15-20 मिनट बाद वह लड़की वापस आई, तब तक
टोकरी उस महिला के पास ही रही।
महिला ने दो ब्रेसलेट पसंद किए, लड़की
ने पैसे लिए और चुपचाप अपनी टोकरी लेकर आगे बढ़ गई। न तो लड़की ने बाकी ब्रेसलेट गिने और न
ही उन्हे ध्यान से देखा।
मैं हैरान था कि वो लड़की सचमुच इतना विश्वास करती है इस
तथाकथित सभ्य समाज के सभ्य और सुसंस्कारित लोगों पर या वह अपने काम में इतना बड़ा
जोखिम उठा रही है।
शायद उस बच्ची कि ऐसी गलत धारणा इस सभ्य समाज ने ही बना दी
है कि चोरी और बेईमानी करना तो उन्ही के हिस्से कि चीज है तथाकथित सभ्य समाज कि
नहीं।
मानलों अगर ऐसा होता कि वही महिला या अन्य कोई व्यक्ति उस
लड़की को सामान के एवज में 100 रुपए का नोट देता और खुल्ले नहीं होने कि स्थिति में
वह लड़की कहती कि मैं बाहर से खुल्ले पैसे लेकर आती हूँ, तो इस
पर क्या प्रतिक्रीया होती लोगों कि? क्या कोई भी तथाकथित
सभ्य व्यक्ति उसे ले जाने देता अपना 100 रुपए का नोट? शायद
नहीं बल्कि वह सोचता कि लड़की उसके पैसे लेकर भाग जाएगी। हम लोगों को विश्वास ही
नहीं है वंचितों पर या हम करना भी नहीं चाहते।
पर जरा सोचिए ऐसा क्यों ? क्यों वह मेली सी लड़की हम
पर इतना विश्वास करती है और हम उस पर रत्ती भर भी नहीं?
हमारे इसी अविश्वास और गलत विचारधारा के चलते इन वंचित
बच्चों और लोगों को अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कभी बिना वजह पुलिस
और प्रशासन इन्हे सताता है तो कभी सार्वजनिक स्थानों पर इन्हे हम जैसे तथाकथित
सभ्य लोगों कि दुत्कार और गुस्से का सामना करते हुए अपमानित होना पड़ता है। जो कि
प्रत्येक नागरिक को संविधान से मिले सम्मान से जीने के अधिकार का सरासर हनन है।
हमें इस सभ्य समाज से पूछना चाहिए कि उनकी गरीबी और वंचितता
के लिए कौन जिम्मेदार है?
क्यों हमारे पास सभी ऐशो-आराम के सभी साधन और उनके पास दो
वक़्त कि रोटी भी नहीं?
क्यों हमारे बच्चे उच्च-शिक्षित और उनके बच्चे बालश्रमिक?
क्यों हमारे घरों में रहने वालों से ज्यादा कमरे और उनकी
छतों-दीवारों का ठिकाना नहीं?
क्यों ? क्यों ? क्यों ?
ताहिर अली
धमतरी,
छत्तीसगढ़