Tuesday, July 11, 2017

शिक्षक

जैसे ही साइकिल कि घंटी मेरे कानों में पड़ती मैं अपने मन में कहता “लो गुरुजी आ गए।“ 
हर रोज नित्य समय पर, कंधे पर झोला लटकाए, पेशानी पर लिए पसीना, शिक्षक हमारे स्कूल आए। 
बस्ता खोलकर पढ़ने का स्वांग (बहाना) करते हुए मन में आत्मीयता से उनका स्वागत करता। 
आते ही पूछते “कैसे हो? मजे में तो हो?” ये सुनकर मन खुशी से भर जाता। 
जब कभी कहानियाँ सुनाते तो उनके और हमारे बीच कि सब दूरियाँ मिट जातीं। 
उनके साथ खेले खेल, आज भी चलचित्र कि भांति मन में चलते हैं। 
उनसे मन कि बात कहते हुए आँखों का भर आना, उनका प्यार से माथे पर हाथ रखना और आंसुओं का सिसकियों में बदल जाना। 
छोटी-छोटी बातों में हमारा हौसला बढ़ाना, दौड़ करके थाम लेना जब भी हुआ था लड़खड़ाना। 
उनकी प्यार भरी डांट और कभी अनायास पीठ पर पड़ी दुलार भरी चपत कि याद कभी-कभी मन को बेचैन कर देती है। 
मन करता है फिर वही वक्त लौट आए और मैं बच्चा बन अपने शिक्षक के साथ फिर से ज्ञान सृजन कि लंबी यात्रा का आगाज करूँ। 
बाकी तो सब वक्त कि चादर में ढक जाते हैं, सिर्फ शिक्षक ही हैं जो हमेशा याद आते हैं।

Thursday, November 20, 2014

जिम्मेदार कौन
अभी हाल ही में कुछ दिनों पहले मैं रायपुर से भोपाल के बीच ट्रेन से स्लीपर क्लास में यात्रा कर रहा था। शाम का समय था ट्रेन में चाय, कॉफी, नाश्ता और भी कई तरह के सामान बेचने वालों के साथ कुछ पैसा मांगने वाले लोग भी आ-जा रहे थे। उनकी आवाज सुनकर लोगों के चेहरों पर जो शिकन उभर आती थी, उससे स्पष्ट था की ये फैरिवाले उनके आराम में व्यवधान पैदा कर रहे थे। फिर भी बेचारे फैरिवाले इस उम्मीद मे आवाज लगाने को मजबूर थे की शायद कोई उनका समान खरीद ले और उनके परिवार का खाने का इंतजाम हो जाए। विडम्बना देखिये कि खाना बेचने वाले खुद खाने को तरसते हैं, लोगों का पेट भरने वाले खुद भूखे पेट रहते हैं। इन्ही फैरिवालों में कुछ बच्चे भी होते हैं, जिनका बचपन रोटी तलासता इधर-उधर भटकता छोटा-मोटा सामान बेचता कहीं भी नजर आ जाता है। उनके हाथों में होता है जूता साफ करने का ब्रश, पानी कि बॉटल और हमारे द्वारा फैलाये गए कचरे को साफ करने के लिए झाड़ू या फिर आपके सामने फैले छोटे छोटे दो मासूम हाथ और आशा भरी नजरें।
अकसर लोग इनके हुलिये को देखकर इन्हे दुत्कार देते हैं। कुछ लोग तरस खाकर या पीछा छुड़ाने के लिए बड़े गर्व के साथ रुपए-दो रुपए इनके हाथों में रख देते हैं, तो कुछ खाने के बाद बचा हुआ खाना देकर अपने आजू-बाजू देखने लगते हैं कि ये महान काम करते हुए उन्हे कितने लोगों ने देखा।
इसी तरह कि हलचल और कवायदों के बीच गंदी और फटी फ्रॉक पहने एक मेली सी लड़की ने डिब्बे में प्रवेश किया, उसकी उम्र बमुश्किल 10-12 साल रही होगी। उसके हाथों में एक बांस कि टोकरी थी जिसमें रंग-बिरंगे मोतियों से बने ब्रेसलेट रखे हुए थे। पूरी टोकरी ब्रेसलेट से भरी हुई थी।
तभी मेरे पड़ोस वाली सीट पर बैठी एक महिला ने लड़की को बुलाया और ब्रेसलेट दिखाने को कहा। लड़की ने पूरी टोकरी महिला के हाथ में थमा दी और खुद उछलती-कुददती अगले डिब्बे कि तरफ चली गई। लगभग 15-20 मिनट बाद वह लड़की वापस आई, तब तक टोकरी उस महिला के पास ही रही।
महिला ने दो ब्रेसलेट पसंद किए, लड़की ने पैसे लिए और चुपचाप अपनी टोकरी लेकर आगे बढ़ गई। न तो लड़की ने बाकी ब्रेसलेट गिने और न ही उन्हे ध्यान से देखा।
मैं हैरान था कि वो लड़की सचमुच इतना विश्वास करती है इस तथाकथित सभ्य समाज के सभ्य और सुसंस्कारित लोगों पर या वह अपने काम में इतना बड़ा जोखिम उठा रही है।
शायद उस बच्ची कि ऐसी गलत धारणा इस सभ्य समाज ने ही बना दी है कि चोरी और बेईमानी करना तो उन्ही के हिस्से कि चीज है तथाकथित सभ्य समाज कि नहीं।
मानलों अगर ऐसा होता कि वही महिला या अन्य कोई व्यक्ति उस लड़की को सामान के एवज में 100 रुपए का नोट देता और खुल्ले नहीं होने कि स्थिति में वह लड़की कहती कि मैं बाहर से खुल्ले पैसे लेकर आती हूँ, तो इस पर क्या प्रतिक्रीया होती लोगों कि? क्या कोई भी तथाकथित सभ्य व्यक्ति उसे ले जाने देता अपना 100 रुपए का नोट? शायद नहीं बल्कि वह सोचता कि लड़की उसके पैसे लेकर भाग जाएगी। हम लोगों को विश्वास ही नहीं है वंचितों पर या हम करना भी नहीं चाहते।
पर जरा सोचिए ऐसा क्यों ? क्यों वह मेली सी लड़की हम पर इतना विश्वास करती है और हम उस पर रत्ती भर भी नहीं?
हमारे इसी अविश्वास और गलत विचारधारा के चलते इन वंचित बच्चों और लोगों को अनेकों परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कभी बिना वजह पुलिस और प्रशासन इन्हे सताता है तो कभी सार्वजनिक स्थानों पर इन्हे हम जैसे तथाकथित सभ्य लोगों कि दुत्कार और गुस्से का सामना करते हुए अपमानित होना पड़ता है। जो कि प्रत्येक नागरिक को संविधान से मिले सम्मान से जीने के अधिकार का सरासर हनन है।
हमें इस सभ्य समाज से पूछना चाहिए कि उनकी गरीबी और वंचितता के लिए कौन जिम्मेदार है?
क्यों हमारे पास सभी ऐशो-आराम के सभी साधन और उनके पास दो वक़्त कि रोटी भी नहीं?
क्यों हमारे बच्चे उच्च-शिक्षित और उनके बच्चे बालश्रमिक?
क्यों हमारे घरों में रहने वालों से ज्यादा कमरे और उनकी छतों-दीवारों का ठिकाना नहीं?
क्यों ?               क्यों ?                क्यों ?    

                                                           ताहिर अली
                                                       धमतरी, छत्तीसगढ़
                                                       मोब- +91845880691                                                              tahirmahi@gmail.com
                                                      


Friday, November 18, 2011

न हमको भुखमरी का डर न कोई खौफ आखों में,
जुदा सबसे तबियत अपनी मुस्काते हैं फाकों में.
पलटकर तख़्त रखदें ठान लें जो चंद मिनटों में,
तुम्हारी क्या बिसात इसके सिवा डालो सलाखों में .
न तुमको गैरत-ऐ-पानी न कोई शर्म आँखों में,
तुम्हारी जिन्दगी का एक मकसद कट जाये मुनाफों में
तुम्हारी देश सेवा इक भरम झूठा दिखावा है.
ये सब जानते है गिरगिट की तरह ये भी छलावा है.
लूटा,लूटते हो और लुटते रहे हैं हम,
बतादो कुछ किया गर इसके अलावा है.
कभी मारा,कभी पीटा,कभी बेदम ही कर डाला,
कभी छीना,कभी लूटा,कभी विस्थापित भी कर डाला
हमारी रोजी गई,रोटी गई काम पर भी पड़ गया ताला
भुखमरी ने आके घेरा बच्चों के हलक से छीन गया निवाला.
फिर भी जी हुजूरी आपकी करते नहीं थकते,
इसका मतलब ये नहीं की आपसे डरते.
जिसको रचा हमने उसी से हमको डराते हो ,
हथियारों के जोर हम पर आजमाते हो.
न इतना आजमाओ हमको की मजबूर हो जाये..
उठा लें हाथ में हथियार और मगरूर हो जाये......                    

  ताहिर अली
98933-11636
tahirmahi@gmail.com

Friday, November 11, 2011

****अगले जनम मोहे बिटिया कीजो****

जब भी कोंई लड़का जन्म लेता है तो-
आँगन की चिड़ियों का कलेजा कांप उठता है,
तितलियाँ दहशतजदां हो जाती हैं,
चिडडो को घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ता है,
क्योंकि कल यही बच्चा हाथों में गुलेल लिए-
चिड़ियों का शिकार करेगा,घोसलों के अंडे बर्बाद करेगा,
तितलियों पर शामत आ जाएगी,
चिडडो को डोर से बांध उडाएगा,
चीटियों को पैरों तले रोंदेगा,
मेंडक के पैर में पटाखा बांध छोड़ेगा,
छिपकली की पूंछ को काट हंसेगा,
बैलों और गायों पर छड़ी बरसायेगा,
बकरी के मेमनों की टांग खीचेगा,
कुतिया के पिल्लों को रुलाएगा,,
क्योंकि इन सब में मुन्ना को बहुत मजा आता है,,
लेकिन जब बिटिया जन्म लेती है तो-
चिड़िया उम्मीद से हो जाती है,
तितलियाँ घरों के आसपास मंडराना शुरू कर देती है 
क्योंकि यह मुन्ना से छिपाएगी अण्डों को,
तितलियों पर जुल्म नहीं होने देगी,,
बकरी के मेमनों की चीत्कार सुन आँख भार आएगी इसकी,
गाय को अपने हिस्से की रोटी देगी,,
कुतिया के पिल्लों की दूध पिलाएगी 
चीटियों को शकर के दाने डालेगी,,,
इन सब के बदले मुन्ना की मार सहेगी,,
माँ की गलियां सुनेगी....
औ़र अगले दिन फिर अपने काम पर लग जाएगी 
प्यार और ममता के असीम खजाने को लुटाने,,,
                                                         ताहिर अली 
                                                   tahirmahi@gmail.com
                                                       098933-11636

Thursday, October 20, 2011

आईना


दोस्तों आज सुबह जब में अपने आईने के सामने खड़ा था मुझे में अजीब लग रहा था...तीन बार कंघा किया,,दो शर्ट बदले फिर भी वहि आलम,,अब मेने आईने के सामने से हटना ही बेहतर समझा..... आईने के इर्दगिर्द कुछ ख्याल आये जिन्हें शायरी के रूप में ढालने की कोशिश की  है;;;उनको आपके साथ साझा कर रहा हूँ.....

१- अगरचे आइनों की जुबां होती नहीं ताहिर,,
    मगर जब बोलने लगते हैं तो किसी की नहीं सुनते..
२- मैं चलते-चलते अक्सर इस गरज से आइना देख लेता हु,
     बहुत मुमकिन है आज मेरी मझसे मुलाकात हो जाये..
३-  मैं हमेशा उस वक्त पर अपना आइना तोड़ देता हूँ,
      जब में आईने के सामने अपने अन्दर झांक लेता हूँ..
४-  बहुत से राज खुल जाये ,अगर ताहिर,,
      आईने को आईने के सामने रख दिया जाये,,,,
५-   मैं उस वक्त अपने आईने से मुकम्मल दूरी बनाता हूँ ,,
        जब भी मेरे आईने की जुबां में सच बोलने की जुम्बिस देख लेता हूँ...

Monday, August 1, 2011

गुस्ताखी माफ़


हमारे घरों में दीवारों और छतों का पता नहीं है,
किन्तु आपके लिए हमने पक्की छत और दीवार बनाई है. 
हमारे घरों की जमीन कच्ची है जो जगह-जगह उखड जाती है,
किन्तु आपकी जमीन हमने मार्बल से तैयार की है.
हमारे घरों की औरतें दूर नदी,कुएं या हैंडपंप से पानी लाती हैं,
किन्तु आपके घर में हमने मुकम्मल पानी का इंतजाम किया है.
हमारे घरों के आसपास बदबूदार नालियां है,
किन्तु आपके घर को हमेशा महकाया है हमने.
हमे तो होली-दीवाली भी नए कपडे नसीब से मिलते है,
किन्तु आपका चोला रोजाना नया आता है.
हमे तो दो जून रोटी के भी लाले है,
किन्तु आपको रोजाना ५६ भोग लगाया है.
प्रभू ! क्या सिर्फ हमारी ही जिम्मेदारी है आपका कोई फ़र्ज़ नहीं?  



                                                  द्वारा --- ताहिर अली 
                                                   098933-11636

मालती


ये कविता मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गैरतगंज विकासखंड में  मैने एक पागल से प्रभावित होकर २००४ मै लिखी थी वो बांसुरी बहुत अच्छा बजाती थी औ़र साथ मै गाती भी थी एक दिन सुबह सुबह लगभग ४ औ़र ५ बजे के दरमियाँ वो बांसुरी बजा रही थी  औ़र साथ मै गा भी रही थी कोई लोकगीत था मुझे बहुत अच्छा लग रहा था मैने सुबह चाय की दूकान पर पूछा की ये सुबह सुबह कौन गाता  है तो उसने हँसते हुए कहा अरे वो पागल होगी मालती.  
कुछ ही देर मै मालती भी घूमते हुए उधर ही आ गई.चाय वाले ने कहा देखो भैया वो रही सुबह वाली गायिका यही मालती है.
मालती को कुछ लोग परेशान कर रहे थे और वो जोर जोर से चिल्ला कर उनके पीछे भाग रही थी........................ 

उसकी आवाज़ में खुदा बोलता है 
उसका हर शब्द उलझन खोलता है.
सड़कों  पर फिरता है मारा मारा,
सूने मकानों मै जो सदायें  दिया करता है,
वो जिसे चोंट पहुचाने पे सिर्फ आह भरता है,
वो सूनी सड़कों पर चिल्लाता है बेवजह,
वो शख्स मासूम,प्यारा,बेगुनाह.
वो लोग जिनके खयालों मै खलल पलता है, 
वो लोग जिन्हें लोग सभ्य कहते  हैं .
मेरी नजर मै वो सब असभ्य होते हैं 
वो जिसको चिड़ाते हैं कहकर पागल,
वो पागल जिसे लोग सनकी कहते हैं
वो अपनी सनक मै सनकता रहता है
वो घंटों उदास, खामोश खुदा से बात करता है
उसकी बातों मै निश्चय ही सच्चाई है 
वो सभ्य है मेरी नजर में मुकम्मल इन्सान भी वो है
वो जो अपने आप को इंसान कहकर इंसानियत का मजाक उड़ाते हैं 
कितने इंसां हैं वो जो सड़क पर एक पागल को चिड़ाते हैं?
पागल मेरा मन अब किसे कहे ? 
दो तरह के पागलों से सामना मेरा हो गया 
 पर खतरा हैं वो सभ्य लोग जो,  
अपने आपको इंसान कहते हैं  
ऊंची हवेली, महलों,अटारियों में रहते हैं.
कैद करदो जंजीरों में ऐसे पागलों को, 
आज़ाद करदो मासूम,प्यारे चिल्लाते पागलों को.