Monday, August 1, 2011

गुस्ताखी माफ़


हमारे घरों में दीवारों और छतों का पता नहीं है,
किन्तु आपके लिए हमने पक्की छत और दीवार बनाई है. 
हमारे घरों की जमीन कच्ची है जो जगह-जगह उखड जाती है,
किन्तु आपकी जमीन हमने मार्बल से तैयार की है.
हमारे घरों की औरतें दूर नदी,कुएं या हैंडपंप से पानी लाती हैं,
किन्तु आपके घर में हमने मुकम्मल पानी का इंतजाम किया है.
हमारे घरों के आसपास बदबूदार नालियां है,
किन्तु आपके घर को हमेशा महकाया है हमने.
हमे तो होली-दीवाली भी नए कपडे नसीब से मिलते है,
किन्तु आपका चोला रोजाना नया आता है.
हमे तो दो जून रोटी के भी लाले है,
किन्तु आपको रोजाना ५६ भोग लगाया है.
प्रभू ! क्या सिर्फ हमारी ही जिम्मेदारी है आपका कोई फ़र्ज़ नहीं?  



                                                  द्वारा --- ताहिर अली 
                                                   098933-11636

मालती


ये कविता मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गैरतगंज विकासखंड में  मैने एक पागल से प्रभावित होकर २००४ मै लिखी थी वो बांसुरी बहुत अच्छा बजाती थी औ़र साथ मै गाती भी थी एक दिन सुबह सुबह लगभग ४ औ़र ५ बजे के दरमियाँ वो बांसुरी बजा रही थी  औ़र साथ मै गा भी रही थी कोई लोकगीत था मुझे बहुत अच्छा लग रहा था मैने सुबह चाय की दूकान पर पूछा की ये सुबह सुबह कौन गाता  है तो उसने हँसते हुए कहा अरे वो पागल होगी मालती.  
कुछ ही देर मै मालती भी घूमते हुए उधर ही आ गई.चाय वाले ने कहा देखो भैया वो रही सुबह वाली गायिका यही मालती है.
मालती को कुछ लोग परेशान कर रहे थे और वो जोर जोर से चिल्ला कर उनके पीछे भाग रही थी........................ 

उसकी आवाज़ में खुदा बोलता है 
उसका हर शब्द उलझन खोलता है.
सड़कों  पर फिरता है मारा मारा,
सूने मकानों मै जो सदायें  दिया करता है,
वो जिसे चोंट पहुचाने पे सिर्फ आह भरता है,
वो सूनी सड़कों पर चिल्लाता है बेवजह,
वो शख्स मासूम,प्यारा,बेगुनाह.
वो लोग जिनके खयालों मै खलल पलता है, 
वो लोग जिन्हें लोग सभ्य कहते  हैं .
मेरी नजर मै वो सब असभ्य होते हैं 
वो जिसको चिड़ाते हैं कहकर पागल,
वो पागल जिसे लोग सनकी कहते हैं
वो अपनी सनक मै सनकता रहता है
वो घंटों उदास, खामोश खुदा से बात करता है
उसकी बातों मै निश्चय ही सच्चाई है 
वो सभ्य है मेरी नजर में मुकम्मल इन्सान भी वो है
वो जो अपने आप को इंसान कहकर इंसानियत का मजाक उड़ाते हैं 
कितने इंसां हैं वो जो सड़क पर एक पागल को चिड़ाते हैं?
पागल मेरा मन अब किसे कहे ? 
दो तरह के पागलों से सामना मेरा हो गया 
 पर खतरा हैं वो सभ्य लोग जो,  
अपने आपको इंसान कहते हैं  
ऊंची हवेली, महलों,अटारियों में रहते हैं.
कैद करदो जंजीरों में ऐसे पागलों को, 
आज़ाद करदो मासूम,प्यारे चिल्लाते पागलों को.

बचपन की करतूत


याद बचपन की जब आने लगी,                                                                                      
मेरी आँख मुरझाने लगी !
गाँव की गलियों में बजता था अपना डंका 
अपन थे राजा और वो अपनी लंका !
चटकाते थे अंटी और खेलते गिल्ली डंडा
निकलते तितली के शिकार पर और चुरा लेते चिड़िया का अंडा!
आम के पेड़ों में होती थी तोतों के बच्चों की खोज 
कभी सुनील तो कभी गोटू के घर हो जाता था अपना भोज !
कपड़ों की फिक्र न जूतों की चिंता 
न मन में बैर न कोई हीनता !
पन्नालाल को चिड़ाते थे बात ही बात में 
लड़ाई होती तो आ जाते औकात में !
बाप-माँ परेशान थे, मास्टरजी हैरान थे 
पढता नी लिखता,
दिनभर मैदान में दिखता!
चोरी करने में अपना नाम था
जामुन,भुट्टा,बैर चुराना आम था !
...............................................
अब साला बड़े हो गए,
अपने पैर पे खड़े हो गए !
छूट गया सुनील गोटू का भोज 
हेडक,  चिंता,टेंसन होती है रोज !
नौकरी , पैसा और सगाई 
बचपन अच्छा था रे भाई ..........................